Sunday 26 February 2017

रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है - Raat Chupchap Dabe Paaw...

रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है 

रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं 

कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है 
ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है

चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं 
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है

और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है 
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी 

हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है

- संपूर्ण सिंह कालरा 'गुलज़ार'

-Sampoorna Singh Kalra 'Gulzar'